घने जंगलों और ऊंची पहाड़ियों पर रहने वाली पहाड़ी मैना तीन दशक से जगदलपुर के वन विद्यालय के पिंजरे में है। वर्ष 1992 में पहाड़ी मैना के संरक्षण और संवर्धन की योजना के तहत 92 हजार की लागत से एक पिंजरा बनाया गया।
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के बाद वर्ष 2002 में पहाड़ी मैना को राजकीय पक्षी का दर्जा मिला। उनके लिए 14 लाख की लागत से बड़ा पिंजरा बनवाया गया जिसमें समय-समय पर पहाड़ी मैना के जोड़े रखे गए। उन्हें पायल, काजल आदि नाम दिए गए। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट देहरादून के वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया। कैटवि ब्रीडिंग के लिए थाईलैंड की तर्ज पर ब्रीडिंग सेंटर बनाने की योजना बनी, पर सब बेकार रहा। मैना का प्रजनन नहीं कराया जा सका।
पहाड़ी मैना बहुत बड़ी मिमिक्री आर्टिस्ट है। वह मनुष्य या किसी दूसरी आवाज की हूबहू नकल कर लेती है। यही इसके प्रति आकर्षण की वजह रही। हाईवे और रेल लाइन के किनारे बने पिंजरे में रखी गई पहाड़ी मैना वाहनों की आवाज और ट्रेन की सीटी बजाने लगी।
जानकार मानते हैं कि रहने के स्थान के कारण ही संवेदनशील पक्षी का प्रजनन संभव ही नहीं हो पा रहा है। वन विभाग ने योजना बनाई कि मैना को कॉलर आइडी लगाकर मुक्त कर दिया जाए ताकि उसके बारे में ज्यादा जानने-समझने का अवसर मिले। थाईलैंड, मलेशिया आदि देशों से पक्षी विशेषज्ञों से सलाह मांगी गई थी परंतु इसी बीच कोरोना आ गया और मैना की कैद की मियाद बढ़ गई।
नर मादा का पता तक नहीं लगा पाए
पहाड़ी मैना के जोड़ों में से कौन नर, कौन मादा है, पक्षी वैज्ञानिक यह भी नहीं पता कर पाए हैं। उन्हें देखने वीआइपी पहुंचते हैं तो मैना निर्देश के अनुसार नमस्ते साहब कहती है। इधर मनोरंजन चलता रहा, उधर बस्तर से पहाड़ी मैना तेजी से विलुप्त होती रही। कभी एक पैसे में बिकने वाली पहाड़ी मैना बस्तर के जंगलों में हर जगह दिखती थी। अब कोटमसर, कालेंग, तिरिया, गंगालूर, बैलाडीला, कुटरू के कुछ इलाकों में ही यह दिखती है। बस्तर में बमुश्किल तीन सौ पहाड़ी मैना ही बची हैं।
इनका कहना है
पहाड़ी मैना को मुक्त करने की योजना बनाई गई थी, पर राज्य शासन को अभी फाइल नहीं भेजी गई है। कोरोना संकट खत्म होने के बाद नए सिरे से योजना बनाई जाएगी। थाईलैंड समेत कुछ देशों में मैना पर काफी शोध हुआ है। उनसे सलाह मांगी गई है।
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